अधिकांश साधक इसलिए भगवान के नहीं हो पाते, उन तक इसलिए नहीं पहुँच पाते, क्योंकि वे सर्वत्र यह देखते हैं कि कौन अपना है और कौन पराया; कौन छोटा है और कौन बड़ा।
अतः अगर आपको भगवत्कृपा लाभ करना है, आत्म-विकास की सीढ़ी पर चढ़ना है, अनात्मा से आत्मा की ओर, सांसारिकता से दिव्यता की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर बढ़ना है तो सबसे पहले आपको यह अपना-पराया, छोटा-बड़ा एवं ऊँच-नीच का दर्शन बंद करना होगा। साथ ही भगवान के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि विषयों पर कुतर्क भी बंद करना होगा।
आपको जो श्रेयस्कर लगे, रुचिकर लगे, भगवान के उस नाम-रूप अथवा तत्व को आप ग्रहण करें - इसमें कोई बुराई नहीं है; लेकिन आप पूर्वाग्रही न बनें ।
अगर आपको प्रभु को पाना है, उनका होना है तो आप भावपूर्वक उनका चिंतन-मनन एवं भजन करें,
क्योंकि “भाव वस्य भगवान"। और यह बात भी ध्यान में रखें कि *"भावे हि विद्यते देवो न पाषाणे न मृण्मये"*
भगवान भाव में होते हैं, किसी पत्थर या मिट्टी में नहीं।
- स्वामी सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती
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