Monday, July 26, 2021

Prajna Mantra 12


संशय सर्प के समान है। 
जैसे सर्प के काटने पर व्यक्ति 
किसी अच्छे चिकित्सक के पास 
तत्काल पहुँच जाये तो बच जाता है।
ठीक उसी प्रकार से   
संशय रूपी सर्प ने जिसे डस लिया है, 
वह यदि किसी श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु के पास 
तत्काल पहुँच जाये तो 
उसका संशय मिट सकता है 
और वह "स्वस्थ" हो सकता है। 
नचेत् उसका भ्रमित एवं मूर्छित होकर 
नष्ट होना सुनिश्चित है।
इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को 
सदैव "संशय-मुक्त" रहने का प्रयास करना चाहिए।
        (पूज्यपाद सद्गुरुदेव श्री स्वामीजी के प्रवचन से...)
                                                     ~ एड्मिन

Prajna Mantra 11

गुरु हमारे प्रथम देवता हैं । गुरुकृपा से ही हमें आत्मा-परमात्मा का बोध होता है । गुरुकृपा से ही बद्ध-जीव मुक्त होता है । गुरु हमें बताते हैं, बनाते हैं तथा अज्ञान अंधकार से आच्छन्न हमारे हृदय को ज्ञान के आलोक से आलोकित करते हैं ।
        गुरु हमारे अंदर अदम्य उत्साह एवं आत्म-विश्वास की नई ऊर्जा का संचार करते हैं और कहते हैं- “बेटा! डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम आगे बढ़ते जाओ।” 
        बच्चा जब पहले-पहले खड़ा होने का प्रयास करता है तो माँ अंगुली का सहारा दे देती है। इसका मतलब यह थोड़ी है कि माँ बच्चे को जिंदगी भर अंगुली पकड़ाकर चलाती रहे ? जिंदगी भर अगर माँ बच्चे को अंगुली पकड़ाकर चलाती ही रहेगी तो वह बच्चा जीवन में कभी मजबूत नहीं हो पायेगा। कभी आगे नहीं बढ़ पायेगा। 
        गुरु भी ऐसा ही करते हैं। वे आपको एक निर्दिष्ट समय-सीमा तक ही सहारा देते हैं, आश्वस्त करते हैं एवं आपके अंदर आत्म-विश्वास भरते हैं। उसके बाद तो चलना आपको ही है। 
        मैं यह मानता हूँ कि गुरु द्वारा प्राप्त मंत्र एवं उपदेश के माध्यम से आपका आत्म-विश्वास यदि प्रबल हो गया तो दुनिया की कोई भी ताकत आपको पराजित नहीं कर सकती। तब आप जीवन और जगत में अवश्य विजयी होंगे- इसमें कोई दो राय नहीं है। 
        इसलिए आज आप सबसे मैं यह कहना चाहूँगा कि आप अपने अंदर गुरु द्वारा प्राप्त उस "मंत्रात्मक ऊर्जा" का विकास करें । उससे आप जीवन में विजयी एवं जगत में यशस्वी बनकर अमर हो जाओगे ।
                - स्वामी सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती

Sunday, July 18, 2021

Prajna Mantra 10

लोग दुनिया में दुख में जीते हैं, 
विषाद में जीते हैं 
क्योंकि 
वे निरन्तर 
दूसरों का दोषदर्शन करते हैं। 
जो व्यक्ति दूसरों का 
दोष दर्शन करता है 
वह न तो भक्त बन सकता है 
और न ही ज्ञानी। 
भक्ति अथवा ज्ञान के मार्ग पर 
चलने के लिए 
नेत्र निर्दोष होने चाहिए। 
प्रेम की निर्दोषता ही तो 'राधा प्रेम" है ।

Prajna Mantra 9

प्राज्ञ मंत्र
          अरे भाई! जगत में तुम आये हो मुक्ति पाने के लिए, अज्ञान-जनित बंधनों की श्रृंखला को तोड़ने के लिए। अतः विनम्रता पूर्वक किसी सद्गुरु की छत्रछाया में रहकर उसका उपाय ढूँढो। 
          जिस दिन गुरु अपने शिष्य को यह समझा देते हैं कि "बेटा! तुम नश्वर नहीं, ईश्वर हो। जीव भाव तुम्हें तुम्हारे प्रारब्ध के कारण मिला है। यथार्थ में तुम आत्म-स्वरूप हो, अजर-अमर-अविनाशी हो" - और वह समझ जाता है- उसी दिन, उसी क्षण वह मुक्त हो जाता है। 
          तब गुरु और शिष्य भी दो नहीं रहते, एक हो जाते हैं। तब दोनों ही एक-दूसरे के लिए अभिनन्दनीय एवं अभिवन्दनीय हो जाते हैं। तब उनके बीच भी “नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमो नमः” की परम्परा चालू हो जाती है, क्योंकि यही यहाँ की वास्तविकता है। 
           यहाँ आज जो कली है, वही कल फूल बनता है। 
वैसे ही यहाँ आज जो शिष्य है, वही कल गुरु कहलाता है।
                - स्वामी सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती 
       ( "केनोपनिषद" पुस्तक से साभार - एड्मिन )

Prajna Mantra 8

प्राज्ञ मंत्र
बंधुओ! यहाँ कामरस पीकर 
आप अपनी प्यास बुझा नहीं सकते। 
प्यास बुझाने के लिए तो इस संसार में 
एकमात्र पानीय “रामरस” ही है। 
यहाँ जिसने भी रामनाम का रस पीया 
वह सिद्ध हो गया, तृप्त हो गया, अमृत हो गया। 
इसलिए आप सब भी  
"राम रस" पीओ, "काम रस" नहीं ।
              - स्वामी सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती

Prajna Mantra 7

प्राज्ञ मंत्र
इस संसार में जो कुछ भी घटित हो रहा है 
वह सब प्राकृतिक है, 
सब प्रकृति द्वारा हो रहा है। 
प्रकृति बना भी रही है और बिगाड़ भी रही है। 
लेकिन अहंकारवश जिसकी बुद्धि बिगड़ी हुई है, 
वह कहता है- मैं “कर्ता" हूँ। 
वह कहता है- मैंने यह घर बनाया। 
मैंने इतना पैसा कमाया। 
अरे भाई, जरा सोचो! 
आपको यह अवसर दिया किसने है ? 
यह अवसर देने वाला भी परमात्मा ही है। 
जब उसकी इच्छा होती है, 
आपको अवसर मिल जाता है तो 
आप छोटे से बड़े हो जाते हो 
और जब आप से अवसर छीन लिया जाता है 
तब आप बड़े से फिर छोटे हो जाते हो।
इसलिए उसे जानो और उसे ही सब कुछ मानो,
स्वयं को नहीं ......।
                - स्वामी सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती

Prajna Mantra 6

प्राज्ञ मंत्र
           अधिकांश साधक इसलिए भगवान के नहीं हो पाते, उन तक इसलिए नहीं पहुँच पाते, क्योंकि वे सर्वत्र यह देखते हैं कि कौन अपना है और कौन पराया; कौन छोटा है और कौन बड़ा। 
          अतः अगर आपको भगवत्कृपा लाभ करना है, आत्म-विकास की सीढ़ी पर चढ़ना है, अनात्मा से आत्मा की ओर, सांसारिकता से दिव्यता की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर बढ़ना है तो सबसे पहले आपको यह अपना-पराया, छोटा-बड़ा एवं ऊँच-नीच का दर्शन बंद करना होगा। साथ ही भगवान के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि विषयों पर कुतर्क भी बंद करना होगा।
          आपको जो श्रेयस्कर लगे, रुचिकर लगे, भगवान के उस नाम-रूप अथवा तत्व को आप ग्रहण करें - इसमें कोई बुराई नहीं है; लेकिन आप पूर्वाग्रही न बनें ।
          अगर आपको प्रभु को पाना है, उनका होना है तो आप भावपूर्वक उनका चिंतन-मनन एवं भजन करें,
क्योंकि “भाव वस्य भगवान"। और यह बात भी ध्यान में रखें कि *"भावे हि विद्यते देवो न पाषाणे न मृण्मये"*
भगवान भाव में होते हैं, किसी पत्थर या मिट्टी में नहीं।
                    - स्वामी सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती

Prajna Mantra 5

*प्राज्ञ मंत्र*
प्रिय आत्मन्!
        शास्त्र भगवान के स्वरूप का आंशिक वर्णन करते हैं क्योंकि वे पूर्णतः वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ हैं। यही कारण है कि वे उसे "नेति नेति" कहते हैं।
        अगर आप उन्हें जानना चाहते हो, पहचानना चाहते हो तो यह आवश्यक है कि पहले "स्वयं" को जानो, अपने "आत्म-स्वरूप" को पहचानो और अपने अंदर उन्हें ढूंढने का प्रयास करो ।
         आत्म-चिंतन, आत्म-विश्लेषण और आत्म- अनुसंधान से जो आत्मज्ञान और आत्मानुभव प्राप्त होता है वही अन्ततः भगवत्-साक्षात्कार एवं  भगवत्कृपा प्राप्ति का साधन बनता है। अतः व्यक्ति को नित्य-निरंतर निश्चित रूप से आत्म-विश्लेषण करते रहना चाहिए । 
         ये बात ठीक है कि आप स्थूल हैं मगर आपके अन्दर जो शक्ति है, जो ईश्वरीय सत्ता है, वह अत्यंत सूक्ष्म है और वह समस्त प्रकार के नाम-रूप-उपाधियों से परे भी है। लेकिन हम उसे जानना और समझना चाहते हैं, 
इसलिए हमने उसे एक संज्ञा दी है, एक रूप दिया है । अब हम उसे ब्रह्म कहें, परमात्मा कहें या भगवान- बात एक ही है। 
         अतः हमारा कर्तव्य है कि अब हम उस एक को ही जानते, मानते और समझते हुए उसका ही हो जायें, उसमें ही समा जायें और वही हो जायें ।
                 - स्वामी सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती

Prajna Mantra 4

भगवत-राज्य में प्रवेश करने हेतु 
श्रद्धा एक आवश्यक उपादान है, 
एक आवश्यक सोपान है। 
इसलिए बुद्धि और विवेक के साथ 
श्रद्धा और विश्वास का संपुट होना चाहिए। 
मानस में गोस्वामीजी ने 
श्रद्धा और विश्वास के रूप में 
भवानी और शंकर की वंदना करते हुए 
समाज को मानो यह संदेश दिया है कि - 
हे मनुष्यो! यदि तुम्हें श्रद्धा और विश्वास का 
सहयोग नहीं मिलता है  
तो तुम रामराज्य में प्रवेश नहीं कर सकते, 
रामलीला को समझ नहीं सकते।
मानस का सिद्धांत है - 
"बिनु बिस्वास भगति नहिं"
अर्थात्- जहाँ विश्वास नहीं होता,
वहाँ भक्ति भी नहीं हो सकती।

श्रद्धा और विश्वास की 
पूर्णत: परिष्कृत एवं परिपक्व अवस्था में 
"प्रेम" पैदा होता है।
प्रेम की पराकाष्ठा ही तो भक्ति है ।
भक्ति परम-प्रेम-रूपा है, 
दिव्य ईश्वरानुरक्ति है ।
परम प्रियतम परमात्मा के प्रति  
प्रेम की निष्काम, निर्मल एवं 
अविरल धारा को ही हम भक्ति कहते हैं। 

श्रद्धा में जिज्ञासा होती है, 
जबकि अश्रद्धा संदेह पैदा करती है ।
श्रद्धा में समर्पण के भाव होते हैं,
जबकि अश्रद्धा परीक्षण चाहती है ।
श्रद्धा और भक्ति- 
दोनों शब्द स्त्रीलिंगवाची हैं। 
दोनों ही नारी-तत्व का प्रतिनिधित्व करती हैं। 
श्रीरामचरितमानस में 
श्रद्धा के रूप में पार्वतीजी की वंदना है तो 
भक्ति के रूप में जनक-नन्दिनी जानकी जी की। 

ध्यान रहे - 
श्रद्धा तब तक सुरक्षित रहती है 
जब तक वह विश्वास के साथ है। 
साथ छूटा कि उसके 
नष्ट होने की संभावना बढ़ जाती है।
इसलिए श्रद्धा को सदैव 
विश्वास के संरक्षण में ही रहना चाहिए ।
क्योंकि श्रद्धा रहेगी, 
विश्वास रहेगा, 
तभी प्रेम पैदा हो सकता है और 
तभी प्रेमाष्पद से साक्षात्कार भी संभव हो सकता है
                    *  *  *
( पूज्यपाद सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी श्री सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती जी महाराज के प्रवचन से .....     -एड्मिन )

Prajna Mantra 3

प्रिय आत्मन्!  
यहाँ तर्क के द्वारा 
असली को भी नकली 
और नकली को भी असली
सिद्ध किया जा सकता है।
शब्दों के जाल में उलझाकर 
अथवा अपने वाक्चातुर्य से 
सत्य को भी मिथ्या 
और मिथ्या को भी सत्य के रूप में 
प्रतिपादित किया जा सकता है। 
लेकिन इससे "संशय" दूर नहीं होता।
इसलिए इसका परिणाम भी अच्छा नहीं होता।
ध्यान रहे- "संशयात्मा विनश्यति" 
संशयी व्यक्ति नष्ट हो जाता है।
अतः व्यक्ति चाहे कितना भी चतुर 
और बुद्धिमान क्यों न हों-
उसे ऐसी बुद्धिमानी नहीं दिखानी चाहिए
जिससे उसका भी अहित हो 
और सामने वाले का भी ...।
               - स्वामी सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती 
(पूज्यपाद सद्गुरुदेव श्री स्वामीजी के प्रवचन से...)
                                                      ~ एड्मिन

Prajna Mantra 2

प्राज्ञ मंत्र
संशय सर्प के समान है। 
जैसे सर्प के काटने पर व्यक्ति 
किसी अच्छे चिकित्सक के पास 
तत्काल पहुँच जाये तो बच जाता है।
ठीक उसी प्रकार से   
संशय रूपी सर्प ने जिसे डस लिया है, 
वह यदि किसी श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु के पास 
तत्काल पहुँच जाये तो 
उसका संशय मिट सकता है 
और वह "स्वस्थ" हो सकता है। 
नचेत् उसका भ्रमित एवं मूर्छित होकर 
नष्ट होना सुनिश्चित है।
इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को 
सदैव "संशय-मुक्त" रहने का प्रयास करना चाहिए।
        (पूज्यपाद सद्गुरुदेव श्री स्वामीजी के प्रवचन से...)
                                                     ~ एड्मिन

Prajna Mantra 14

* प्राज्ञ मंत्र * गुरु एक जलता हुआ दीपक है  और शिष्य - जलने के लिए प्रस्तुत एक अन्य दीपक ।  जब उस अन्य दीपक का  गुरु रूपी जलते हुए दीपक से  ...