भगवत-राज्य में प्रवेश करने हेतु
श्रद्धा एक आवश्यक उपादान है,
एक आवश्यक सोपान है।
इसलिए बुद्धि और विवेक के साथ
श्रद्धा और विश्वास का संपुट होना चाहिए।
मानस में गोस्वामीजी ने
श्रद्धा और विश्वास के रूप में
भवानी और शंकर की वंदना करते हुए
समाज को मानो यह संदेश दिया है कि -
हे मनुष्यो! यदि तुम्हें श्रद्धा और विश्वास का
सहयोग नहीं मिलता है
तो तुम रामराज्य में प्रवेश नहीं कर सकते,
रामलीला को समझ नहीं सकते।
मानस का सिद्धांत है -
"बिनु बिस्वास भगति नहिं"
अर्थात्- जहाँ विश्वास नहीं होता,
वहाँ भक्ति भी नहीं हो सकती।
श्रद्धा और विश्वास की
पूर्णत: परिष्कृत एवं परिपक्व अवस्था में
"प्रेम" पैदा होता है।
प्रेम की पराकाष्ठा ही तो भक्ति है ।
भक्ति परम-प्रेम-रूपा है,
दिव्य ईश्वरानुरक्ति है ।
परम प्रियतम परमात्मा के प्रति
प्रेम की निष्काम, निर्मल एवं
अविरल धारा को ही हम भक्ति कहते हैं।
श्रद्धा में जिज्ञासा होती है,
जबकि अश्रद्धा संदेह पैदा करती है ।
श्रद्धा में समर्पण के भाव होते हैं,
जबकि अश्रद्धा परीक्षण चाहती है ।
श्रद्धा और भक्ति-
दोनों शब्द स्त्रीलिंगवाची हैं।
दोनों ही नारी-तत्व का प्रतिनिधित्व करती हैं।
श्रीरामचरितमानस में
श्रद्धा के रूप में पार्वतीजी की वंदना है तो
भक्ति के रूप में जनक-नन्दिनी जानकी जी की।
ध्यान रहे -
श्रद्धा तब तक सुरक्षित रहती है
जब तक वह विश्वास के साथ है।
साथ छूटा कि उसके
नष्ट होने की संभावना बढ़ जाती है।
इसलिए श्रद्धा को सदैव
विश्वास के संरक्षण में ही रहना चाहिए ।
क्योंकि श्रद्धा रहेगी,
विश्वास रहेगा,
तभी प्रेम पैदा हो सकता है और
तभी प्रेमाष्पद से साक्षात्कार भी संभव हो सकता है
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( पूज्यपाद सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी श्री सत्यप्रज्ञानन्द सरस्वती जी महाराज के प्रवचन से ..... -एड्मिन )